Karamnasa By Ashutosh Kumar Tiwari

 

 

 

 

Product Description – सीमा पर खड़े जवान भी हाड़ माँस के बने इंसान ही होते हैं, जिनमें हम समय बेसमय देवत्व का आरोपण करते हैं। इत्तेफाक से समाज जब साहित्य रचता है तो ये जवान सिर्फ नायक होते हैं, जहाँ ये दुश्मनों से लड़ते हैं, उनके छक्के छुड़ाते हैं, फिर न्योछावर हो जाते हैं उस माटी की सुरक्षा में जिससे अपना तन माँजते हुए यहाँ तक पहुँचे होते हैं। इस तरह उनकी निजी जिंदगी, संघर्ष, मानसिक अवस्थिति और वो द्वंद्व कहीं किनारे पर ही छूटा रह जाता है, इस इंतजार में कि कभी उस आम जिंदगी की तरफ भी कोई नजरें इनायत करेगा। पता नहीं क्यों समाज सिर्फ और सिर्फ शहादतों को खोजता है, सम्मानित करता है फिर मस्त हो जाता है। आम जिंदगी और साहित्य में फ़ौज में भर्ती होने वाले तमाम युवक, और उनका संघर्ष हाशिए पर ही रह जाता है। इस तरह जिनके संघर्षों को महत्तर स्थिति प्रदान की जाती है वो प्रशासक होते हैं, नेता होते हैं, या कुछ और भी। साहित्य जगत ने आईएएस, एसएससी के तैयारी में लगे युवकों के संघर्ष गाथा को बखूबी चित्रित किया है। किसानों की जिंदगी भी साहित्य सिनेमा का भाग रही है। पर एक सिपाही की जिंदगी, पता नहीं क्यों उपेक्षित सी रह जाती है! संघर्ष तो उसका भी होता है न! एक और बहुत ही मजेदार चीज जो है वो यह कि यत्र-तत्र बिखरे हुए यौन रोगों, गुप्त रोगों के इलाज के दावे करते प्रगट विज्ञापन, और पत्रिकाओं के खुले हुए पन्नों पर बिखरी हुई गुप्त समस्याओं का निदान। किसी भी तरह के यौन शिक्षा से मरहूम तरुण मन जब इन पन्नों पर, विज्ञापनों पर नजरें फेरता है तो तरह तरह के गुप्त जाले मन के अंदर जम जाते हैं। फिर मकड़ी की तरह उसका मन तमाम द्वंद्वों के मध्य उलझ कर रह जाता है। बेचारे हकीम साहब अपने विज्ञापन में किसी अबूझ से पते को दर्ज करके चले जाते हैं और साला मन जो है वहमों में उलझ जाता है। कथा का नायक आज का नहीं है। उस नायक का बचपन आज से दो तीन दशक पूर्व का है, जब ग्लोबल होते गाँव वैश्विक होने के साथ तमाम गुत्थियों में भी उलझ रहे थे। मुगलसराय से लेकर प्रयागराज तक, या किसी भी रेलखंड पर चले जाइए, वो जो लाल लाल दीवालों के उपर सफ़ेद चूने से लिखे हुए विज्ञापन होते हैं न, वो कभी न कभी आप सभी के मन पर कोई गुप्त चित्र अवश्य बनाये होंगे। इस तरह अभिवृत्तियों के निर्माण में रेलवे लाइन के किनारे विज्ञापन लिखते ये दिमाग जरुर सर्वश्रेष्ठ सेल्स मैन और मार्केटिंग वाले दिमाग होंगे। जो गाहे ब गाहे किसी को भी ग्राहक बना लेने की क्षमता रखते हैं। खैर यह किस्सा एक ऐसे युवक की है जो सामान्य पृष्ठभूमि से है। यह युवक जूझता है, फिर जीतता है। ब्रूनो का एक कथन है कि “मैं जूझा हूँ यहीं काफी है”; तो यह युवक भी केवल जूझता है। फिर वो जीतता है कि नहीं यह तो उस समाज के मत्थे है जो उसे कभी करमनासा की उपाधियों से विभूषित करता है।

 

 

About the Author – लेखक इलाहाबाद विश्वविद्यालय से विज्ञान स्नातक होने के उपरांत स्वाभाविक नियति कह लीजिए, या जीवन की आकस्मिकता, वर्तमान में रोजी रोटी के लिए एक समर्पित एवं पूर्णकालिक लोकसेवक है. पूर्व में प्रेम रूपी क्षेत्र के फ्लक्स के तहत संकुचित होते समय को केंद्र में रखकर एक उपन्यास “समय तरंग पर प्रेम” प्रकाशित होने के उपरांत, दुस्साहस कह लीजिए अथवा आत्मिक क्षुधा शान्ति का प्रयास, जो लेखन कर्म को अपने सार्वजानिक दायित्वों के निर्वहन के साथ साथ आगे बढ़ाने का प्रयास लेखक कर पा रहा है. लेखक का यह दूसरा उपन्यास है. वैसे तो लेखक एक जिज्ञासु पाठक भी है, पर अंतर्मन में उठ रहे विचार, जीवन के अनुभव, और प्रकृति प्रदत्त रचनात्मकता कहीं दफ़न न हो जाए इसलिए संघर्ष करता है, प्रयत्न करता है और कुछ भी अंट संट कह लीजिए, जो भी मन में आए लिख लेता है. लेखक एक साहित्यकार होने का दावा तो कत्तई नहीं करता, पर इस बात का भरोसा तो दिला ही सकता है कि उसकी रचनाओं में यथार्थ का एक बड़ा हिस्सा है.

 

 

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