Daiveey Adhyatmic Shaktiya

Product Description-    देवी भागवत में लिखा है कि प्रलय के बाद व सृष्टि से पहले केवल देवी जगदम्बा का निर्गुण रूप ही था। फिर उनका सगुण रूप आया। अर्थात सारी सृष्टि एक नारी से ही जन्म लेती है। नारी का स्थान बहुत ऊॅचा है। देवी ने अपने स्वरूप से तीन देवियॉ बनाकर त्रिदेव को दी थी। देवी ने कहा था कि इनका आदर करना। इनकी सहायता से तुम तीनों सृष्टि, स्थिति व संहार का कार्य करो। यदि इनकी उपेक्षा करोगे तो ये तुम्हें छोड़कर वापस चली जायेगी। यही हुआ भी जब विष्णु व शिव ने उनकी अवहेलना की तब वे उन्हें छोड़कर चली गई। जिससे वे दोनो शक्तिहीन हो गए। पुनः देवी के आदेश पर ही उनकी शक्तियॉ लौट कर आई। तभी वे अपने पूर्व शक्तिमय स्वरूप को प्राप्त हुए। भगवान ने स्त्री व पुरुष को बराबर की ही भूमिका दी है। उसके बनाये संसार को चलाने के लिये यह दोनों स्तम्भ ही बराबर का स्तर रखते हैं। बल्कि स्त्री को उन्होंने आत्म शक्ति व सहन शीलता ज्यादा ही दी है। परिवार उसके ही सहारे आगे बढ़ता है। पुरुष घर को चलाने के लिये मुख्य रूप से आर्थिक सहायता लाता हैं। धनार्जन के उपरान्त उसके पास समय नही रहता। कुछ समय वह अपने स्वयम् की खुशी आदि के लिये भी निकाल लेता है। परन्तु नारी तो एक नई पीढ़ी को जन्म देती है फिर उससे पाये संस्कार से वही पीढ़ी अपना व समाज का विकास कर उन्नति करती है। यही नही, वर्तमान में नारी इसके साथ साथ बहुधा स्वयम् भी अर्थेत्पादन करती है। नारी अपना समय सन्तान व परिवार में ही लगाती है। नारी शक्ति के लिये बस इतना ही कहना है कि भगवान भी जब राक्षसों को नष्ट करने में सफल न हो सके तब उन्होंने ‘‘शक्ति’’ देवी को जन्म दिया। दुर्गा जी को सभी भगवान भी सर झुकाते हैं। बच्चा पैदा होते ही ‘‘मॉ’’ पुकारता है। उसे इस दुनिया में सबसे पहले मॉ पर ही विश्वास होता है। इसीलिए हम अपनी देवियों को भी मॉ कहते हैं क्योंकि हम उन पर ही भरोसा कर अपना जीवन उन पर छोड़ देते हैं। इस कारण ही हम उन सभी को मॉ का स्थान देते हैं जिनके ऊपर हमारा जीवन निर्भर करता है। जैसे नदी, धरती आदि। स्वयम् शिव ने कहा है कि अर्धनारीश्वर केवल मेरे अन्दर नही है वह हर पुरुष व प्रकृति के अन्दर है। हर प्राणी में उसका बायॉ हिस्सा प्रकृति व दाहिना हिस्सा पुरुष है। हमारे शरीर में ठोस पदार्थ मॉस व मज्जा पुरुष से व तरल पदार्थ रक्त आदि प्रकृति से आती हैं। स्त्री को नाजुक व श्रीाावुक कहते हैं। अतः हमारी भावनायें भी प्रकृति से आती हैं। हमारे शरीर के अन्दर हमारा दिल हमारे शरीर के थोड़ा बाये भाग की तरफ है अर्थात वह प्रकृति के हिस्से में आता है। दिल प्रकृति के हिस्से में है इस कारण भावनायें प्रकृति से ही आती हैं। यदि हम अपने शरीर से नारी का हिस्सा निकाल दें तो वह एक लुन्ज पुन्ज अचेतन मासपिन्ड की तरह हो जायेगा। नारीत्व से ही चेतना आती है। जब श्रंगी ऋषि जिन्हें भृंगी ऋषि भी कहते हैं, शिव से मिलने आये थे उस समय शिव ने उनसे कहा था कि मेरी परिक्रमा कर लो तब मैं तुम्हें अपने गणों में शामिल कर लूँगा। श्रंगी ऋषि ने कहा था कि मैं शिव भक्त हूँ। एक स्त्री की परिक्रमा नही करुँगा। उस समय उनको इस बात का एहसास दिलाने के लिए शिव ने उनके शरीर से स्त्रीत्व को समाप्त कर दिया था जिससे वे एक चेतनाहीन मासपिन्ड की तरह रह गए थे। तब उनकी समझ में यह रहस्य आया था। उस समय उन्होंने नारी के महत्व को पहचाना व स्वीकारा था। हम हर शुभ काम में कन्याओं को मान सम्मान देते हैं। पूजा के उपरान्त कन्याओं को भोज भी कराते हैं। समाज भी इन बातों को मानता है इस कारण ही वह कन्याओं के नाम में देवी या कुमारी जोड़ता है। जैसे कमला देवी, लक्ष्मी देवी ,विमला कुमारी आदि। अतः हमें सदैव नारी का सम्मान करना चाहिए। हमारे यहॉ मॉ, मातृभूमि व जगतजननी शक्ति, मातृत्व के ये त्रिविध रूप कहे गए हैं। विश्व में मातृत्व का ऐसा उदात्त-महान विचार किसी ने नही दिखाया है। मातृत्व के सम्बन्ध में कोमलता व पवित्रता के विचार तो सर्वत्र प्रस्तुत किये जाते है । रोमन कैथोलिक में मेडुसा व यीशु के मातृत्व से ऐसे चित्र जो हृदय को छूने वाले है, पूजे जाते हैं। परन्तु हमारे यहॉ ज्ञानमयी, करुणामयी, जगत को धारण करने वाली होने के साथ-साथ विनाशाय सर्वभूतानाम स्वरूपिणी शक्ति इन तीन रूपों में उसका वर्णन हुआ है। जगत माता का ये स्वरूप अन्य लोगों के ध्यान में नही आया। हमारे यहॉ जन्मदात्री, धरित्री, जगतधात्री ये मातृत्व के त्रिविध रूप बताये गए हैं। अब सवाल यह उठता है कि क्या इस संसार में सिर्फ खाने पीने के लिए ही मनुष्य जीवित है। मनुष्य तो एक विचारवान, बुद्धिमान प्राणी है। अपने हृदय में मातृत्व के सम्बन्ध में श्रेष्ठ भावना जगाकर, अत्यन्त कृतज्ञता के साथ, ‘‘माता, मातृभूमि व जगत माता के साथ अपना माता पुत्र का नाता है,’’ ऐसे मातृत्व के स्वरूप का ज्ञान धारण कर उसकी उपासना के लिए कटिबद्ध होना चाहिाए। पूर्ण श्रद्धा के साथ इसका मनन करना चाहिए। हमारे जीवन में कृतज्ञता का स्थान असमान्य है। कहते हैं कि मनुष्य ने बडी प्रगति कर ली है। परन्तु मनुष्य कृतज्ञता भूल रहा है। कृतज्ञता की भावना विलुप्त हो गई है। अपने निजी सुख में डूबा वह माता, प्रकृति व देवी मॉ तीनो को भू ल गया है। यह प्रगति नही मानवता से विमुख होने वाली बात है। हमें भगवान के प्रति कृतज्ञ हा ेना चाहिए जो हमें जीवन व जीवन चलाने के लिए साधन देते हैं। प्रकृति हमें जीवन चलाने में सहायक हा ेती है। उसके प्रति भी कृतज्ञ होना चाहिए। सर्वज्ञानप्रदायनी, शक्तिदात्री जगत माता के वास्तविक भावना के अभाव व केवल स्वार्थ सीमित भाव से उसकी ओर देखने के कारण अपना जीवन पशुतुल्य हो रहा है। काम प्रधान जीवन सुसंस्कृत मनुष्य के जीवन का लक्षण नही है। अन्तः करण में यदि कृतज्ञता का भाव नही रहा तो जीवन जंगली हो जाता है। मनुष्य का सुसंस्कृत होकर माता के प्रति अपनी भक्ति उसके इन तीन स्वरूपों में नित्य करना अति आवश्यक है। अतः हमें इन तीनों स्वरूपों के प्रति कृतज्ञता नही भूलनी चाहिए। हमें अपनी प्रकृति का भी पूरा ध्यान रखना चाहिए। अपनी आवश्यकता के अनुसार ही प्रकृति को उपयोग करें । इस कारण हमारी संस्कृति में उन्हें भी देव के समकक्ष रखा गया है। हम पर्वत की पूजा करते हैं। हमें कृष्ण ने सिखाया कि इन्द्र की जगह गोवर्धन पर्वत की पूजा करो जो वर्षा करवाता है। जब वाष्प से भरी हवा पर्वत को पार करने के लिए ऊपर उठती है तब ठन्डी होकर जल को नीचे गिरा देती है। इस तरह पर्वत हमें पानी देता है। हमारे जानवरों को घास देता है। हम नदियों की पूजा करते है। उन्हें मॉ का स्थान देते हैं, गंगा मॉ या नर्मदा मॉ आदि। क्योंकि जल ही जीवन है। उसके पीछे हमारा मन्तव्य यही है कि हम उनका प्रयोग करें परन्तु केवल आवश्यकता के अनुसार । आजकल हमारी मान्यतायें बदल रही हैं। इस कारण हम प्रदूषण फैला रहे हैं। नदियॉ गन्दी हो गई व हमें गंगा स्वच्छ करने के लिए नमामि गंगे योजना चलानी पड़ रही है। बॉध भी केवल आवश्यकता के अनुसार बनाने चाहिए। किसी वस्तु की अति बुरी होती है । बिजली हम सौर ऊर्जा से भी बना सकते हैं। बॉध बनाने से नदी की मिट्टी भी जमा होने लगती है। उससे नदी छिछली हो जाती है। उससे बाढ़ का खतरा बढ़ जाता है। वृक्ष हमें सिखाते हैं कि अपनी जड़ों से जुड़े रहो। तब तुम सुरक्षित रहोगे। अपना सारा अस्तित्व परोपकार में लगा दो। संसार को फल, फूल,छाफव देते रहो। वृक्ष को काटना भी अवश्यकता के अनुसार चाहिए। हमें वृक्षों काटने पर लकड़ी अवश्य मिलती है परन्तु वृक्ष के लगे रहने पर आक्सीजन, छॉव, आखों को शीतलता व औषधि फल व फूल भी मिलते हैं। वन भी मिट्टी के बहने को रोकता है। 7 हम सर्प की पूजा करते हैं क्योंकि वे प्रकृति के जीवन चक्र में एक स्थान पर आते हैं उनके न रहने पर वहॉ से चक्र टूट जायेगा। पाश्चात्य सभ्यता वाले हमारी हॅसी उड़ा सकते हैं परन्तु वे भी अब प्रकृति का मूल्य समझने लगे हैं। हमने प्रकृति को भगवान बनाकर अर्थात भगवान का सहारा लेकर प्राणियों को उस बात का ज्ञान दिया। जिससे वह भावना उनके जीवन में अमिट छाप बन रह जाती है। वह इनका दुरूपयोग करने से डरता है। इसी कारण कहते हैं कि हमारे यहॉ तैतीस करोड़ देवी देवता हैं। बिहार के पश्चिमी चम्पारण में थारू आदिवासी समाज में एक पर्व होता हैं जिसका नाम ‘‘बरना’’ है। इसमें साठ घन्टे का लाकडाउन या बरना मनाया जाता है। प्रकृति की रक्षा करने के लिए थारू समाज ने इसे अपनी परम्परा में शामिल किया है। उनकी मान्यता है कि उनके बाहर जाने या बाहर से किसी के आने से नये पेड़ पौधों को नुकसान हो सकता है। इस पर्व व र्प्यावरण में बहुत घनिष्ठ सम्बन्ध है। पर्व के प्रारम्भ में भाई बहन पूजा पाठ करते हैं। पर्व की समाप्ति पर नृत्य व संगीत का कार्यक्रम होता है। दरअसल पर्व में पर्यावरण व प्रकृति के साथ सहजीवन का संदेश छिपा होता है। कई पर्व प्रकृति की रक्षा के लिए मनाये जाते हैं। सारांश में हम समझ सकते हैं कि हमें अपने जीवन के मूल्यों को भी सीखने का अवसर इस पुस्तक में मिलता है। सभी देवी व देवता अपने कार्यों से हमे कुछ न कुछ सीख अवश्य देते हैं।

About the Author –  लेखक के विषय में

अरुणा एक उच्च मध्यम वर्गीय परिवार में 1948 में पैदा हुई थीं। अपने जीवन के प्रारम्भिक दिनों से ही उन्हें पढ़ने व नई चीजें सीखने का शौक था। वे अपनी माँ के चरित्र से बहुत प्रभावित थी । उनकी माँ का बाल विवाह हुआ था। उन्होंने पाँच संतानें हो जाने के बाद अपनी शिक्षा पूर्ण की व प्रिंसिपल के पद से सेवा निवृत्ति हुई। उनकी प्रेरणा व मार्ग दर्शन में ही अरुणा अपने जीवन का ध्येय पाने में सफल हुईं।
अरुणा का पुस्तक प्रेम व ज्ञान पिपासु होना उन्हें उनके जीवन के लक्ष्य तक ले गया।इसके कारण उन्हें धार्मिक, ऐतिहासिक व सामाजिक पुस्तके पढ़ने व खोज करने की जिज्ञासा बढी। फलस्वरूप इस क्षेत्र में आगे बढ़कर उन्होंने पौराणिक पुस्तके भी लिखीं। उन्होंने एम एस सी कैमेस्ट्री में ग्वालियर यूनिर्वसिटी में तृतीय स्थान प्राप्त किया था। उन्हें पी एच डी में दाखिला मिल गया साथ ही डी आर एल एम में नौकरी भी मिली। परन्तु उन्होंने एक अलग पथं-मातृत्व के पथ पर बढ़ना पसन्द किया व उसमें सफल भी हुई । बच्चों के सजग हो जाने के उपरान्त उन्होंने 10 साल एक कम्पनी में मैनेजर के पद का कार्य भी सम्भाला।
आर्मी अफसर की पत्नी होने के कारण उन्हें लगभग सम्पूर्ण भारत व विदेश में भी रहने का अवसर मिला जिससे उनके ज्ञान की प्यास भी बुझी । उन्हें जब भी अवसर मिला उन्होंने अपनी संस्कृति इतिहास व पौराणिक ज्ञान को बढ़ाने के लिए कई धार्मिक यात्रायें भी की। अब अपने जीवन की दूसरी पारी में अपने सत्तरवें दशक में अपनी प्रतिभा को गृहणी होने के साथ-साथ लेखिका होने के दायित्व निभाने में लगाया।
उनकी किताबें ‘‘रामायण समय की कसौटी पर‘‘,’’ ‘‘रामायण फार द चिल्ड्रैन’’, ‘‘कृष्ण एक दृष्टा’’, ‘‘शक्तिस्वरूपा’’ नारी सशक्तिकरण पर, ‘‘ दैवीय आध्यात्मिक शक्तियॉ’’ व ‘‘ समाज की शक्ति स्तम्भ नारियॉ’’आदि हैं। उन्होंने बच्चों को नैतिक मूल्य सिखाने के उद्देश्य से बच्चों के लिए भी पुस्तके लिखी है।

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